Tuesday, February 11, 2014

शायरी में लखनऊ

मजाज़ का अल्हड़पन
'मीर'-गी का जुनूँ आ गया है
शायरी में ज़रा सा लखनऊ आ गया है

देखकर मुझे पत्थर उठा लेते हैं ये
क़ाफ़िर कहाँ से रेख़ते का मजनू आ गया है

ये रेलें क्यूँ ऐसे लखनऊ से दौड़ती फिरती हैं
क्या इनमें भी 'मीर' का लहू आ गया है

कभू न मिलाना ख़ुद को मीर से
मीर न हो गए जो कब की जगह कभू आ गया

ता-ज़ीस्त यार की फ़िराक़ में रहे
यूँ बेदम हुए के वो यूँ आ गया

हिन्दवी में लिखने गए तो कलम रूकती रही
आवारा हाल-ए-ग़म उर्दू में हू-ब-हू आ गया

चिकन से यूँ सराबोर हैं ये गलियां जैसे
सूखी नमाज़ में वज़ू आ गया

दैर-औ-हरम की महफ़िलें नाराज़ रहीं
सीने में मजलिस लिए
कहाँ से ये इश्क़-ए-मजरूह आ गया

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