Sunday, April 15, 2012

हो गया

उल्फ़त के लिए याद करेगा ज़माना हमको
जीने का सबब ही मरने की वजह हो गया

जिस दर्द की उम्मीद में जीते रहे
जाँ तक आते आते सज़ा हो गया

क़त्ल तो क़त्ल है फिर भी
नज़र-ए-शौक़ से हुआ तो अदा हो गया

ये दिल जब तक रहा बेज़ार रहा
काम का हुआ तो क्या हो गया

पहले पहल चैन और अब ये आखरी दर्द
जो था उनके नाम से हवा हो गया

मैं न रहा बन्दा न रहा
जब से कोई ख़ुदा हो गया

सुना है हर घर में नाम हमारा लेते हैं
छोटी सी बात से नाम बड़ा हो गया

ख़त मेज़ पर ही पड़ा रहा रात भर
अब ये मर्ज़ बेदवा हो गया

Monday, April 9, 2012

सलाम

रोज़ गली में दिख जाते थे
हम मुस्कुरा कर, नज़र झुका कर सलाम कर लेते
बस तभी से सिलसिला जारी है इबादत का

सब कुछ लुटा चुके हैं इस धंधे में हम
हमें न था इल्म इस तिजारत का

परस्तिश ही करनी थी सो कर ली
हमें क्या दैर-ओ-हरम की ईमारत का

इश्क़ में तो सब बराबर होते हैं
फिर क्यूँ उन्हें है ज़ौक खुदाई का
क्यूँ हमें है इंतज़ार इनायत का

Sunday, April 8, 2012

चाँद वाला आदमी

मस्त चाल चलते थे वो

न दीन-दुनिया की चिंता
न कोई उनके लिए ख़ास दिन था
रातों से ख़ासा लगाव था शायद
चाँद सा कोई घाव था शायद

समेटने को कुछ था नहीं
पर थैलियाँ जमा करने का शौक़ था
मिठाईयों का ऐब कह लो चलो
पर हंसी का उनको ज़ौक था

झूलते से, लटकते से
चुटकियाँ बजा बजा के चलते थे
जैसे हर चीज़ का अचम्भा हो
ऐसे आँखें मलते थे

एक थैली में बंद कर रखे थे भगवान्
जैसे बुतों में बसी थी उनकी जान
बैठ कर उनके सामने कोई भी बात कह लो
किसी को खबर न होगी कानो-कान

सिर्फ ठन्डे पानी से नहाते थे
और अपने पजामे का नाड़ा ख़ुद ही बांधते थे
बिन शब्दों के बात करते
आवाज़ में भाव कह जाते थे

रात रात रोना शुरू कर दिया था कुछ दिनों से
उखड़े उखड़े रहने लगे थे अपनों से
अस्पताल भी सीटी बजाते हुए गए
रिश्ता जुड़ने लगा था सपनों से

घंटों चाँद ताकते
जैसे पडोसी की खिड़की हो
ऐसे आसमान में झांकते
और उन्हें चाँद सा कोई घाव था शायद

एक बंधी ज़िन्दगी चलती रहेगी
कुछ दिन को दिनचर्या में कमी खलती रहेगी
अब कमरे की दीवारें हाथ मालती रहेंगी
थैलियाँ चैन की सांसें लेती रहेंगी
अब रात कमरे से रोने की आवाजें नहीं आएँगी
थैलियों में बंद भगवान् रिहा हो गए
बहुत चालू थे, जाने का वक़्त भी क्या चुना
चाँद पूरा है आज

एक तरह से अच्छा है
हम और वो - दोनों रिहा हो गए
पर तब हुए, जब बंधन की आदत हो चुकी थी
पर आदत का क्या है
साँसों सी है
एक दिन छूट ही जायेगी
जब रोज़ खाली कमरा दिखेगा
अपने आप उम्मीद टूट जायेगी

१०० मुश्किलों को पल में हल गए वो
मस्त चाल तो चलते थे
पर क्या मस्त चाल चल गए वो ।

Thursday, April 5, 2012

इत्र

उनके नाम का इक लिफ़ाफ़ा
कमीज़ की जेब में रख कर चले
जो क़रीब से गुज़रा पूछता है
ये कौन सा इत्र है जनाब

Tuesday, April 3, 2012

यूँ ही

इश्क़ ने तेरे ख़ुदा ही माना मुझको
हाँ पर कभी बंदा न जाना मुझको

हर आशिक़ को ख़लिश में लुत्फ़ आता है
इस में मज़ा न आना मुझको

मुझसे परस्तिश का इख्तियार भी छीन लिया
न रास आया मेरा ही बुतख़ाना मुझको

ख़ुदा से शिकवा रहा ता उम्र
अब ख़ुद से ही होगा बचाना मुझको

छीन लिया मेरा जहां मुझसे
थमा दिया सारा ज़माना मुझको

तेरी नाराज़गी का इल्म नहीं
उम्र रही तो कभी समझाना मुझको

अच्छा था जब बुतों पे सौंप रखा था
अब कौन कहेगा की कब है ख़ाक हो जाना मुझको