Saturday, February 25, 2012

बंजर चांदनी

और कितने अश्क़ पीयेगी,
ये ख़ुश्क रहेगी,
बंजर चांदनी

हर दरार प्यासी है
एक हसीं उदासी है
जैसे आज सीने में लिए बैठी है
खंजर चांदनी

इस ज़मीं से ख़ासा इश्क़ है इसे
हर बार उतर आती है
न सोचती है किसी का न देखती है
मंज़र चांदनी

उसकी आँखों के उजाले से
साँसों की उम्मीद है
दो पल को और जी लूं जो भर लूं
अन्दर चांदनी
मगर क्या ज़िन्दगी देगी ये
बंजर चांदनी

मगर लगता है जैसे
इस ज़मीं से चाँद उगाती है ये
बंजर चांदनी ।

Monday, February 20, 2012

ये दुनिया है किसके पास

अरे यार ये दुनिया है किसके पास ?

आशिक़ तो कहते हैं उन्होंने छोड़ रखी है,
अपनी ही किसी और दुनिया में रहते हैं
उनके पास जिन्होंने इसे डुबा रखा है
रंगीले, बदमस्त पैमानों में ?
या उनके पास जो दुनिया भुला कर,
और ही किसी नशे से परस्त हैं ?

पंडितों और मुर्शदों से तो ये 'मसला' दूर ही रखो
हाँ भई 'मसला'
ज़रा सी बात पूछो तो 'मसला' बन जाता है
और ये तो यूँ भी बड़ा मसला है की
ये दुनिया है किसके पास ?

शायर ता-उम्र मुंह फेरते रहे
जाने किस दुनिया पे फ़ितने कसते रहे
उनकी नज़र से देखो तो हराम थी ये
पर शायर की नज़र का क्या ऐतबार ?
शायर तो उस नस्ल का है
जिसे नुख्स में मज़ा आता है
जब उसकी नहीं तो कैसे हक़ जताता है
के ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ?
ठोकर मारने का हक़ रखते हो तो बताओ
ये दुनिया है किसके पास ?

इंसानों के बाज़ारों में मिलती है क्या?
कितने की पड़ेगी?
मिल गयी तो कितना चलेगी?
गारंटी या छूट मिलेगी?

मैंने कहीं बिकते देखी तो नहीं
मगर मुझ में भी तो शायर वाला कीड़ा है
हक़ से लात मार सकता हूँ
पर ग़ालिब, साहिर, फैज़ के मुक़ाबले
मेरा वक़्त दूसरा है
उन जैसा पागल नहीं हूँ
और उनके जैसा, पूरा दिल के भरोसे नहीं
ज़रा सी अक्ल से काम लेता हूँ
इसी लिए तो कहता हूँ
के हक़ से लात मार सकता हूँ
मगर कोई कम्बख्त ये तो बता दे
के ये दुनिया है किसके पास
बस एक बार मिल जाए, तो छोड़ दूं ।

Wednesday, February 15, 2012

जंग जायज़ इश्क़ गुनाह

जंग जायज़ इश्क़ गुनाह

जग ये छीन लेता है, जग से छीन लेता है
सुकूं नहीं ये कुसूर है
बेशुमार हो तो कर दे बेपनाह,
इलज़ाम जायज़, इश्क़ गुनाह

जो इश्क़ कर सके, वही बैर रख पाता है
जग से लड़ने की आदत में,
ख़ुद से, इश्क़ से रोज़ ये लड़ जाता है
लड़ने के सौ कारण, इश्क़ बेवजह
इलज़ाम जायज़, इश्क़ गुनाह

Tuesday, February 7, 2012

Middle क्लासिये

कुछ लोग free की नसीहत देते नहीं थकते हैं
उन्हें हम सारे फ़िज़ूलख़र्ची लगते हैं
उन्हें ये नहीं पता, हर चीज़ के लिए,
हम उनसे ज़्यादा घिसते हैं
भई हम so called नए ज़माने के लोग,
किश्तों में पिसते हैं ।

२० साल पहले चर्चे हो जाते थे,
जब घर पर Phone लग जाता था,
आज कल उस से ज़्यादा आसानी से
२० लाख का Loan लग जाता है
हर महीने जान खाने, आते फ़रिश्ते हैं
और हम, किश्तों में पिसते हैं

जितनी जल्दी आगे बढ़ने की है,
उतनी जल्दी zero balance होने की भी है
पहले
गेहूं ख़ुद पिसवानी पड़ती थी, अब पिसी मिलती है
idli के लिए दालें, अब पिसी मिलती हैं
पहले लोग मर्ज़ी से घिसवाते थे,
अब हर घर में ख़ुद-बा-ख़ुद घिसे मिलते हैं,
बड़े बड़े, बेवकूफ़ों से, आँखों में सपने लिए,
हम middle क्लासिये,
किश्तों में पिसते हैं ।