Monday, February 28, 2011

काग़ज़


काग़ज़ पर अब कौन लिखता है,
काग़ज़ पर लिखने का ज़माना गया ।

हर वर्क़ के सिरे मुड़े मुड़े होते थे,
गुस्सा आता था जब कोई रीढ़ की हड्डी पकड़,
किताब को पेट के बल रख कर छोड़ देता था,
window sill पर १ चाय का कप पड़ा हो,
साथ हो पड़ी हो एक क़िताब,
जिसमें शब्द छपे न हों, हाथ से लिखे हों,
इस JPEG Image को देख कर, या सोच कर,
एक मस्त वाली Feeling आती है न,
धीरे-धीरे हवा चले, पन्ने उडें,
हवा के मोड़ से वो भी मुड़ें,
कुछ अक्षर टूटे-टूटे हों,
कहीं शिरोरेखा अक्षरों को बिना छुए ही गुज़र जाए,
कहीं कुछ अक्षर ऐसे हों,
जैसे उन्हें फांसी लग गयी हो,
कहीं मात्रा की मात्रा ही उतर जाए,
पर इन त्रुटियों में अब,
शायद खूबसूरती नहीं रही,
अब तो सब छपा हुआ पढ़ते हैं,
सब Perfect जो चाहिए।

इतना कुछ मिलता है Stationery की दुकानों में,
Hand-made paper की क़िताबें,
और तरह तरह के पेंस तो पूछो मत,
देख कर ही लिखने का मन करता है,
और हाथों से लिखे शब्द तो,
खींचते हैं अपनी ओर,
लिखने वाले की क्षमता के हिसाब से,
जो कमियां रह जाती हैं,
उनका हुस्न अब किताबों में नहीं रहा,
अब क़िताब के पन्ने निकल कर बिखर जाएँ,
तो दिल पसीजता नहीं इतना,
कल, एक क़िताब औंधे मुंह पड़ी थी,
मैंने सोचा एक पल,
फिर सोचा, पड़ी रहे ।
ज्यादा नुख्सां हुआ, तो एक नयी Copy ख़रीद लूँगा,
कई छपी हुई क़िताबें मिल जायेंगी
क्यूंकि काग़ज़ पर अब कौन लिखता है,
काग़ज़ पर लिखने का ज़माना गया ।

Saturday, February 19, 2011

हरिवंश

जब मैं छोटा था,
"आ रही रवि की सवारी" पढ़ कर पागल हो गया था,
एक ही दिन में मानो,
अन्दर के कवी महोदय जाग उठे,
"आ रही चाँद की सवारी लिख डाली"
... हंसी आती है ।

कुछ साल बाद,
दिनकर, पन्त, निराला, महादेवी, जयेसी को पढ़ा,
MA हिंदी कर रही थी माँ,
शुद्ध हिंदी तो समझ न आई,
पर चस्खा लग गया,
'नीड़ का निर्माण', 'निशा निमंत्रण', 'एकांत संगीत'
क्या भूलूं, क्या याद करूँ,
मैंने तो मानो major कर डाला,
फिर कुछ सालों बाद,
हाथ लगी मधुशाला,
सारी घोल कर पी ली,
अब तक बेसुध हूँ ।

छायावाद, हालावाद, अब भी नहीं समझता मैं
पता नहीं कब, छायावाद शब्दों में आ गया,
फिर हाल ही में पढ़ी,
'रात आधी खींच कर मेरी हथेली,
... फिर 'रवि की सवारी' याद आ गयी ।
जिसे पढ़ कर लिखना शुरू किया था,
'रात आधी' पढ़ कर लगा,
लिखना छोड़ दूं ।

हरिवंश के बारे में पढ़ना शुरू किया,
ये सोच कर के,
कहीं से कोई connection ही निकल आये,
कुछ तो हो जो एक जैसा हो,
ख्याल न सही, शब्द ही सही,
सोच की गहरायी न सही,
छायावाद न सही, पर कुछ तो हो ।
बात फिल्मी है, पर क्या फ़र्क पड़ता है,
बात सच तो है
उसका जन्मदिन भी 27 नवम्बर का है ।

उर्दू



उर्दू में अपना सुकून ढूँढता हूँ,
इस मौसिक़ी से सराबोर भाषा में
अपना खोया जूनून ढूँढता हूँ .
ज़फर की शायरी का खून ?
नज़ाकत में आने वाला 'नून' ?
ग़ालिब के अशआरों का मजमून ?

न ऍन, गेन, का हुस्न है मुझ में
न जीन, शीन से खूबसूरत मोड़
न गाफ़ लिखने का तोड़
न गोल 'ये' का जज़्बा,
जो अक्षर का लिंग बदल सकूं
न फिरंगी फ़ारसी का हम्ज़ा,
न 'छे' से पेट में बिंदु हैं,
न 'खे' सा सर पर टीका
'दो चश्म हे' सा भी नहीं दिखता मैं
'से' सा भी तो नहीं बिछता मैं

शायद हर्फों में न हूँ,
शायरी में छिपा हूँ
पर नज़्मों या रुबाई के साथ भी तुक नहीं बैठता मेरा,
ग़ज़ल के बहाव से भी अनजान हूँ
जानता हूँ, शेहेंशाह नहीं हूँ कोई,
इसी लिए नहीं ढूँढा ख़ुद को कसीदों में
इतना नहीं मैं शैतान हूँ
न किसी शायर की मसनवी में
न बोलचाल वाली लखनवी में

न हर्फ़ हूँ, न अक्षर हूँ,
न आधे अक्षर का डर हूँ,
मैं वो हूँ,
जो वक़्त की मार से,
सबसे पहले वर्क से मिट जाता हूँ,
जो न मतलब बदले,
न सबब बदले,
लिखते हुए कलम फिसले तो मैं
अक्षर से लिपट जाता हूँ
बोलने वाले के गले को खटकता हूँ,
उर्दू का ज़ौक कहते हैं कुछ लोग,
ज़र्रा हूँ छोटा सा,
बस छोटा सा नुख्ता हूँ .

Wednesday, February 16, 2011

सोज़ को google कर लो

कल किसी ने मुझसे पुछा - सोज़ का मतलब क्या है
मैंने कहा, मुझे नहीं पता - Google कर लो ।

हाँ हाँ ... मैं उन बेवकूफों में से हूँ,
जो ग़म और मलाल नहीं पालते,
गर ये दोनों मिल जाएँ राह में,
तो अनजान मार कर निकल जाता हूँ ।
8 GB की ज़िन्दगी में अगर 6 GB सोज़ होगा,
तो बचे 2 GB में सिर्फ मरना रोज़ होगा ।

इस्सी लिए भाई हम न पड़ते इन लफड़ों में
सीधी सी बात है, मैंने कह दिया
सोज़ का मतलब चाहिए तो - Google कर लो ।

Tuesday, February 15, 2011

रिक्त


मेरा स्थान मुझको साधे,
अतिरिक्त रहे, बस रिक्त रहे ।

एक ही पल में किस मोड़ पर,
आ कर मैं खड़ी हो गयी,
सालों का तो पता नहीं,
पर सब ने कहा - मैं बड़ी हो गयी
शीशे से लाज आने लगी,
जिस पिता की आँखों में प्रेम था,
उस में चिंता आज आने लगी ।

जैसे सपनों से नयन भरे,
लेकर पग डरे डरे,
राजमहल में आई मैं,
तेरहवीं रानी कहलाई मैं ।

हर रानी सा मेरा भी,
ये! बड़ा सा कमरा था,
गहनों का संदूक अलग,
रूप आपों-आप संवरा था,
बस एक बार देखा था उनको,
आँखों में तेज, चन्दन था माथे पर,
तोंद थी हलकी सी, तलवार दाईं तरफ लगाते थे,
शायद बायें हाथ से खाते थे ।
कुछ तो था नयनों में उनके,
मुझं पर पड़े थे, ३ बार गिन के,
मैं तो मानो जम गयी,
जब भी मुझ पर उनके नयन पड़े,
आंसू निकले बड़े बड़े ।

बाक़ी की सब मुझको,
तेरहवीं कह-कह छेड़ा करतीं,
पकड़ कलाई रोज़ मेरी,
बाज़ू को रह-रह टेढ़ा करतीं,
एक तो थी ४० साल की डायन,
पान चबा, पढ़ती रोज़ रामायण
कैकयी से था प्रेम उसे,
बहु समझती थी ससुरी मुझे ।
नाम किसी ने न पुछा मेरा,
अच्छा है, रिश्ता न जुड़ा,
मैं सांप-सीढ़ी में हमेशा हार जाती,
जो आती, बाज़ी मार जाती।

एक सुबह जब उठी मैं,
सिन्दूर का डिब्बा बिखरा पड़ा था,
फर्श लहुलुहान हुआ पड़ा था,
फिर देखा तो बिस्तर पर,
छींटें पड़ीं थीं सिन्दूर की,
पर जब जाना सच मैंने, तो डर भागी मैं,
पहली रानी के कमरे में
खूब हंसी वो पहले तो,
कहा - अब हर महीने होगा ये ,
फिर भेजा किसी को, कुंवर से कहने को ।

३ महीने ब्याह को हुए,
रोज़ अकेली सोयी थी,
आज अमावस्या की रात पता चला,
राजाजी ने बुलवाया है ।

रात न जाने क्या हुआ,
प्रेम से हाथ अब भी कांप रहे थे,
आती थी अटखेली अब भी,
रगों में जैसे सांप रहे थे,
शीशा देखा तो देखा - शरमा रही थी,
बाहर से दो-चार आवाजें,
नाम मेरा बुला रही थी,
"मेरा नाम कैसे पता था इनको?
मैंने तो बताया था कभी,
उन में क्या एक हो गयी मैं?
अब रही मैं तेरहवीं? "

दोपहर पता चला के वो नहीं लौटेंगे अब ।
नीति उनको खा गयी,
आंसू न आये,
हलकी सी उदासी पर छा गयी,
अगले दिन उनके शरीर के साथ,
बारह शरीर और जले,
ऐसा वो कह गए थे - के मेरा नाम रहे १२ से परे,
मैं महाराज के पास गयी,
हिम्मत जुटा कर कह डाला उनसे,

" मेरा स्थान मुझको साधे,
जलने वालों की सूची में मेरे नाम का स्थान
अतिरिक्त रहे, बस रिक्त रहे

आज भी रिक्त है स्थान मेरा
अब भी जल रही हूँ मैं।
अब भी जल रही हूँ मैं ।

Tuesday, February 8, 2011

अलमारी

मुझे तय करके अपनी अलमारी में रख ले।

चुपचाप पड़ा रहूँगा,
जहाँ रखेगा मुझे
अपनी सिलवटों की आदत भी डाल लूँगा,
न पहन रोज़ाना मुझे,
न मैला कर, न धुलवाना पड़े,
न उतारना पड़े मुझे
कुछ भी नया ले आ,
मुझे हर रंग से ढक दे
मुझे तय करके अपनी अलमारी में रख ले

सिरे उधड़ने लगे हैं अब,
किसी और का रंग भी चढ़ गया है मुझ पर,
पानी में डूब कर अब फूलता नहीं पहले सा,
कच्ची धुप में, सर्द हवा में, झूलता नहीं पहले सा
ज़्यादा जगह नहीं लूँगा,
दब कर छोटा हो जाऊँगा,
पड़ा रहूँगा, नज़र न आऊँगा,
मुझे तय करके अपनी अलमारी में रख ले

धीरे धीरे याद से मिट जाऊँगा,
मेरी आवाज़ भी नहीं पहुंचेगी तुझ तक,
मेरे सवाल भी दब के चुप हो जायेंगे,
मुझे देख कर किसी की बात याद न आएगी,
मेरे रंग से जुड़े जज़्बात भूल जाएगा
अलमारी की महक मैं सोख लूँगा,
उसे अपनी महक बना कर पी लूँगा,
अब तुझ से दूर रहने की आदत हो चली है,
सांस लूँगा, जी लूँगा,
मुझे तय करके अपनी अलमारी में रख ले

हर कोई मुझे तुझसे दूर करने की बात करता है
इस दुनिया से यूँ भी थक गया हूँ मैं,
तेरी अलमारी,
तेरा सामान,
तेरी महक,
सब कुछ तुझ से भर लूँगा,
हाथ बाँध कर, गर्दन झुका कर,
मैं फिर चैन से मर लूँगा,
न धुप, न हवा की अब ज़रुरत है
बस मुझे मेरी जगह दे दे, इस अलमारी में,
तय
करके अपनी अलमारी में रख ले

मैं नहीं जंचता साथ तेरे,
मेरी बाजुओं से लम्बे हैं हाथ तेरे,
पर मैं तो जीवन बाँध चुका हूँ,
सारी सीमा फांद चुका हूँ,
न मुश्किल हो मुझसे,
न तकलीफ़ दूं,
मुझसे जुडा कोई फैसला न लेना पड़े,
मैं रहूँ वहां, जहाँ तुझे लगे मैं नहीं रहा,
मैं रहूँ वहां, तेरे जगह न लूं जहाँ,
मैं रहूँ वहां, जहाँ मुझे रख कर तू भूल जाए,
मेरी गलती पर न कभी तेरी नज़र जाए,
अँधेरे में जब मैं डर जागूँ,
मेरे साथ तू न डर जाए,
घर में रहूँ, तेरी सोच में न रहूँ,
तेरे साथ रहूँ, तेरे साथ न रहूँ,
तेरे सामान में रहूँ,
तेरे ध्यान में न रहूँ,
मैं रहूँ वहां, जहाँ न रहूँ,
इसी लिए,
मुझे तय करके अपनी अलमारी में रख ले

सब कुछ लाद दे मुझ पर,
सारे रंगों में दबा दे मुझे
ख्याल न रख, चिंता न कर,
बस मुझे तय करके अपनी अलमारी में रख ले