Friday, July 30, 2010

ग़ालिब की क़िताब


मेरी पुरानी ग़ालिब की किताब से एक पन्ना ग़ायब है शायद।

सालों तक पड़ी रही, धूल चाटती रही ।
कुछ हर्फ़ अपने नुख्ते खो चुके हैं,
फिर भी मिसरों की महक अब भी सलामत है,
मिर्ज़ा साहब को गुज़रे तो अरसा बीत गया,
पर शायरी का ज़ौक, आज भी क़यामत है
क्या था उस पन्ने पर? कहाँ गया होगा?
क़िताब का कितना वज़न कम हो गया उसके जाने से?
कितने अशआर लावारिस कर गया?
उड़ा कर हवा ले जायेगी उसे जिस शेहर
वहीँ फिर कोई ग़ालिब हो शायद?
वक़्त तो अब हो चला है
मिर्ज़ा साहब को गुज़रे तो अरसा बीत गया।

६० रुपये की थी नुमाइश में खरीदी थी
हर शेर में लुत्फ़ घुला था
आधी उर्दू अब भी समझ नहीं आती
पर हर शेर में लुत्फ़ घुला था
क़िताब की महक, एक ज़माना लौटा लाती है
पर उस का एक पन्ना गायब है शायद ।
यहाँ मेज़ पर पड़ी रहेगी तो हवा में मौसिक़ी रहेगी
पर जो पन्ना खो गया है
एक ज़माना साथ ले गया
लफ़्ज़ों का क्या है - फिर मिट्टी में मिल जायेंगे,
पर ख़याल, शायद मिर्ज़ा साहब की मज़ार की तलाश में जायेंगे,
उन्हें गुज़रे तो यूँ भी अरसा बीत गया ।

मिल जाए कभी भूले भटके जो किसी को
लौटा देना पन्ना मेरा
वक़्त ने यूँ भी पोंछ दिया होगा उसे,
जहाँ था - वहीँ यूँ ही उजला सा लगा दूंगा फिर,
शायद वक़्त रहते हर्फ़ भी लौट आयें
अगर और जीते रहे - तो येही इंतज़ार होगा ।

नहीं लौटे जो हर्फ़ तो न सही,
न वो कलम रही, न वो स्याही,
शायद उजला ही रह जाएगा मिलने पर ,
लिखेगा कौन उस पर,
मिर्ज़ा साहब को गुज़रे तो एक अरसा बीत गया ।

Thursday, July 22, 2010

कम

ज़रा सा कम हो गया हूँ मैं ।

उम्र ने खर्च कर दिया मुझे
थोड़ी सी लापरवाह निकली
मुश्किलों के लिए थोडा सा अब बचा रखा है
आधी ख़ुशी,
आधे से ज्यादा ग़म हो गया हूँ मैं
ज़रा सा कम हो गया हूँ मैं ।

मन में हाथ डाल कर,
मुट्ठियाँ भर भर कर जज़्बात ज़ब्त कर लिए
पहले नौ सौ इकहत्तर थे,
अब काट कर तीन सौ सोलह रब्त कर दिए
तीन महीने नहीं,
अब एक साल में बदलने वाला मौसम हो गया हूँ मैं ।
ज़रा सा कम हो गया हूँ मैं ।

आंसू अब आसानी से नहीं आते,
रातों को हकबका के नहीं उठता मैं
हालात के आगे आसानी से, अब नहीं झुकता मैं
ख्वाब दिन भर आँखों से नहीं जाते
ज़ख्मों की दुहाई तो पहले भी नहीं देता था,
अब उनका मरहम हो गया हूँ मैं
ज़रा सा कम हो गया हूँ मैं ।

थोडा थोडा कर यूँ भी मर जाना है
अब शुरुआत हो चली है
इस से आगे की अब सूनसान सी गली है
उसी से हो कर अब, अपने घर जाना है
अंधेरों से इस बार थोडा सा डर जाना है
इस बार थोडा सा बिखर जाना है
कुछ हिस्सों में यूँ भी ख़तम हो गया हूँ मैं
ज़रा सा कम हो गया हूँ मैं

अपनी नज़र से देखता है ज़माना हर कोई,
मुझे अब हर चीज़ में कमी दिखती है
जैसा मैं, वैसी ही नज़र होगी मेरी,
इसी लिए अब ज़रा सा कम हो गया हूँ मैं

पूरा अब फिर शायद हो न पाऊँ,
मिल न सकूं आँखों को,
पर खो न पाऊँ,
हर बार एक नयी कमी दिखेगी मुझ में
हर बार कुछ अलग नज़र आएगा
फिर मुझ में पुराना कुछ तलाशेगा हर कोई
फिर उम्मीद पूरी रखेगा हर कोई ,
पर उम्र ने खर्च कर दिया है मुझे,
ज़रा सा कम हो गया हूँ मैं ।

Thursday, July 15, 2010

उम्मीद

इस उम्मीद से बस उम्मीद थी ,
आज यूँ भी कहाँ ईद थी ।

ख्वाबों की आदत हो चली है,
इतनी प्यारी न कभी नींद थी ।

आयतें पढने को बस जी चाहा,
आज यूँ भी कहाँ ईद थी ।