Wednesday, May 28, 2008

आज

आज पैरों के तलवे भीगे से लगते हैं

नाखूनों के आस-पास पड़े पानी के छींटे से लगते हैं

निकली थी खुरदरी ज़मीन पर उसकी तलाश में

उसके एहसास फकत से ये पैर आसमान पर पड़े से लगते हैं


कल गुजरी थी इसी चौराहे से, सड़कें भागती थी,

आज सारे मोड़ खड़े से लगते हैं

उँगलियों की गिटियाँ मुलायम सी,

हथेली की रेखाओं के सारे मोड़ नए से लगते हैं






Monday, May 5, 2008

कभी

आंखों से कभी ख्वाहिशें तो की होती,

ज़िंदगी कभी फकत लम्हों में ही जी होती


अश्कों का हिसाब तो रखा उम्र भर,

कभी मुस्कुराहटों की गिनती भी की होती.


आज फिर हवा के झोंकों ने जगा दिया,

काश उनसे इतनी दुश्मनी न ली होती.


मिटते गए निशाँ, बुझती गई आहटें,

साँसों की दीवानगी, खुदा ने इन्हें भी बख्शी होती.


उसने तो निभाई खुदाई अपनी

हमने कभी बंदगी तो की होती.


जज्बातों का सबब ही तलाशते रहे,

जज्बातों की कद्र तो की होती.


अकेले मोड़ पर अकेले खड़े, सोचा,

कभी कोई राह तो चुनी होती.


रगों से कुरेद-कुरेद, जुनूँ निकाल दिया,

काश थोडी संजीदगी बरती होती.